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जेलेंस्की-बाइडेन का मिलन, अमन की उम्मीद पर ग्रहण?

दुनिया को और खासकर अमेरिका को यह बात समझनी होगी कि यूक्रेन-रूस युद्ध का अंत यूक्रेन के हाथ में नहीं है। नाटो के देश और खुद अमेरिका के साथ बातचीत से ही इस युद्ध का शांतिपूर्ण अंत हो सकता है।

December 24, 2022
biden and zelensky

यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोडिमिर ज़ेलेंस्की और अमेरिकी प्रेसिडेंट जो बाइडेन

‘महाशक्ति’ यानी सर्वोच्च सत्ता पर काबिज ताकत का वो एहसास, जो सबको अपनी उंगलियों पर नचाना चाहती है। वो ‘महाशक्ति’ किसी को भी अपने समकक्ष खड़े नहीं होने देना चाहती, वो चुनौती भी स्वीकार नहीं करना चाहती, बल्कि वो ‘महाशक्ति’ चाहती है कि उसके समकक्ष या खिलाफ खड़े होने वाली ताकत हमेशा कमजोर बनी रहे। इसलिए उंगलियों पर नाचने वाली कठपुतलियों का इस्तेमाल करने से भी वो ‘महाशक्ति’ गुरेज नहीं करती। हालांकि ऐसी कठपुतलियां जब सब कुछ खो देती हैं, तब उनके पास सिर्फ एक रास्ता बचता है – ‘शांति और समझौता’। वो अमन की ओर कदम बढ़ाते भी हैं लेकिन ‘महाशक्ति’ को ये अस्वीकार होता है। इसलिए अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर हर उम्मीद को खत्म करने का खेल शुरू हो जाता है। ऐसा ही खेल आज जारी है अमेरिका-यूक्रेन-रूस के बीच।

“तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद यूक्रेन जिन्दा है और वह कभी सरेंडर नहीं करेगा।”- यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर जेलेंस्की ने अमेरिका की धरती से रूस और दुनिया को यही संदेश दिया है। फरवरी में युद्ध शुरू होने के बाद पहली बार विदेश निकले जेलेंस्की का अमेरिका में रेड कारपेट वेलकम हुआ। अमेरिकी संसद को संबोधित करते समय जेलेंस्की को दस बार स्टैंडिंग ओवेशन मिला। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन से मुलाकात और फिर साझा प्रेस कॉन्फ्रेंस भी रूस, यूरोप और दुनिया के लिए बड़ी घटना है।

यूक्रेन के राष्ट्रपति को 45 अरब डॉलर की रकम मदद के तौर पर अमेरिका ने दी है। युद्ध के मोर्चे पर डटे रहने के लिहाज से यह बहुत बड़ी मदद है। लेकिन जेलेंस्की को इससे भी अधिक मदद की उम्मीद है और इसलिए उन्होंने अमेरिकी संसद से कहा है, “रूसी सेना को पूरी तरह से खदेड़ने के लिए और गोला-बारूद की जरूरत होगी।“ इससे पहले अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन से मुलाकात के बाद जेलेंस्की ने जो कहा, वह भी महत्वपूर्ण है- “महज शांति के लिए यूक्रेन क्षेत्रीय अखण्डता की कीमत नहीं चुकाएगा।” इसलिए अमेरिका ने यूक्रेन को पैट्रियट मिसाइल डिफेंस सिस्टम भी देने की घोषणा की है।

जेलेंस्की-बाइडेन मुलाकात से रूस चिंतित है। रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने दोहराया है कि यूक्रेन-रूस युद्ध के लिए ‘तीसरे देशों की नीतियां’ जिम्मेदार हैं। पुतिन लगातार कहते रहे हैं कि अमेरिका ही वो देश है जो यूक्रेन का ब्रेनवॉश करता रहा है और नाटो के हाथों वह यूक्रेन के इस्तेमाल को कतई बर्दाश्त नहीं करेंगे। सवाल यह है कि जेलेंस्की-बाइडेन की मुलाकात क्या रूस के गुस्से की आग को और अधिक भड़काने वाला है? या फिर रूस ने यूक्रेन पर निर्णायक लड़ाई की ठान ली थी, जिसे भांपकर जेलेंस्की अमेरिका के पास मदद के लिए पहुंचे हैं।

यूक्रेनी राष्ट्रपति जेलेंस्की के 21 दिसंबर 2022 को अमेरिका पहुंचने की घटना की तुलना 81 साल पहले इंग्लैंड के प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल के अमेरिका दौरे से की जा रही है। तब 7 दिसंबर 1941 को अमेरिकी बंदरगाह पर्ल हार्बर पर जापान ने पूरी ताकत के साथ हमला किया था। ढाई हजार से ज्यादा अमेरिकी सैनिक मारे गए थे। दूसरा विश्वयुद्ध जारी था। इस घटना के बाद ही अमेरिका दूसरे विश्वयुद्ध में शामिल हुआ था। तब अमेरिका ने जर्मनी और सहयोगी देशों के खिलाफ जंग को निर्णायक बनाने के लिए इंग्लैंड का इस्तेमाल किया था।

सवाल यह है कि क्या जेलेंस्की के अमेरिका दौरे का नतीजा इस रूप में होने वाला है कि नाटो के देश खुलकर यूक्रेन-रूस युद्ध में सामने आ जाएंगे? अगर ऐसा हुआ तो यूक्रेन-रूस युद्ध तीसरे विश्वयुद्ध में बदल सकता है। रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने यूक्रेन को दी जाने वाली अमेरिकी सैन्य और आर्थिक मदद को इसी रूप में देखा है। उन्होंने साफ तौर पर कहा है कि यूक्रेन को मिल रही अमेरिकी मदद युद्ध लड़ने के समान है।

यूक्रेन को अमेरिका से सहायता ऐसे समय में मिल रही है जब इसकी अहमियत यूक्रेन के लिए सबसे ज्यादा है। दिसंबर महीने में ही रूसी राष्ट्रपति ने अपने सैन्य प्रमुखों से मुलाकात की। पुतिन ने सैन्य कमांडरों के साथ मीटिंग भी की है और यूक्रेन से युद्ध में विशेषज्ञों की राय ली है। ‘स्पेशल मिलिट्री ऑपरेशन’ का खाका तैयार कर लिया गया है। 10 महीने से जारी युद्ध का मनोनुकूल अंत नहीं होता देख रूसी सैन्य अभियान की अपने ही देश में आलोचना होने लगी थी। इस वजह से रूसी राष्ट्रपति अब निर्णायक कदम उठाने की तैयारी कर रहे हैं।

अगस्त महीने में रूसी दक्षिणपंथी चिंतक और व्लादिमीर पुतिन के करीबी माने जाने वाले अलेक्जेंडर दुगिन की बेटी दारिया दुगिन की हत्या कर दी गई थी। पुतिन ने इस हमले के लिए यूक्रेन को जिम्मेदार ठहराया था और इसका बदला लेने की उन्होंने सार्वजनिक घोषणा की थी। खेरसोन जैसे बड़े शहर रूसी कब्जे से निकल जाने के बाद अपने ही देशवासियों में अपने सैन्य अभियान की सफलता का विश्वास दिलाना भी रूस का फौरी मकसद हो गया है। रूस अपने उस तेवर को हासिल करना चाहता है जब उसके सैनिक बेलारूस की सीमा पार करते हुए कीव तक जा पहुंचे थे।

पेंटागन का मानना है कि रूस नए साल की शुरुआत में ही यूक्रेन में बड़ी कार्रवाई करने वाला है। इसके लिए रूस ने दो लाख सैनिक खास तौर से तैयार कर रखे हैं। रूस के रक्षा मंत्री सर्गेई शोइगु और एयरफोर्स चीफ वैलेरी ग्रीसिमोव के साथ ऑपरेशन का पूरा खाका पुतिन ने तैयार कर लिया है। पुतिन के इस तेवर से अमेरिका हैरान और परेशान है कि अब युद्ध में या तो रूस जीतेगा या फिर दुनिया तबाह होगी। इसका साफ मतलब है कि लड़ाई सिर्फ यूक्रेन तक सीमित नहीं रहेगी। इसका एक खतरनाक पहलू यह भी है कि रूस न्यूक्लियर प्रोग्राम को मॉडर्नाइज करने की योजना पर भी अमल कर रहा है।

80 साल में दुनिया बदल चुकी है। पर्ल हार्बर हमले का जवाब अमेरिका ने जापान के हिरोशिमा-नागासाकी में परमाणु बम गिराकर जरूर दिया था। मगर, आज रूस बड़ी परमाण्विक शक्ति है। अगर यूक्रेन को अमेरिकी मदद से नाराज होकर रूस ने कोई कदम उठा लिया तो अमेरिका के लिए जवाबी कार्रवाई कोई आसान काम नहीं होगा। खुद अमेरिका में भी ‘यूक्रेन को ब्लैंक चेक देने का समर्थन नहीं’ का नारा गूंज रहा है। रिपब्लिकन यूक्रेन को दी जा रही मदद के खिलाफ हैं।

दुनिया को और खासकर अमेरिका को यह बात समझनी होगी कि यूक्रेन-रूस युद्ध का अंत यूक्रेन के हाथ में नहीं है। नाटो के देश और खुद अमेरिका के साथ बातचीत से ही इस युद्ध का शांतिपूर्ण अंत हो सकता है। इसके बजाए आर्थिक और सैन्य मदद देकर यूक्रेन को मजबूत किया जा रहा है या उसे और कमजोर बनाया जा रहा है-यह महत्वपूर्ण प्रश्न है। यूक्रेन की हालत जर्जर हो चुकी है। युद्ध के बीच आज यूक्रेन अंधेरे में जी रहा है। भीषण सर्दी शुरू हो चुकी है। ऐसे में आगे युद्ध को जारी रख पाना और मुश्किल होने वाला है। इन परिस्थितियों में यूक्रेन को भोजन-पानी और मानवीय सहायता की जरूरत अधिक रहेगी। इसके बजाए युद्धक सामग्री देकर अंतहीन युद्ध में क्या अमेरिका अपना योगदान नहीं बढ़ा रहा है?

यह बात कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है कि 10 महीने तक युद्ध जारी रहने के बावजूद संयुक्त राष्ट्र या अमेरिका या यूरोप ने अब तक रूस को बातचीत के टेबल तक लाने की कोई ठोस पहल नहीं की है। भारत ने अपनी तरफ से ऐसी पहल की है लेकिन यह निष्फल साबित हुआ है। सवाल ये है कि नए साल में दुनिया एक भीषण युद्ध का इंतजार करे जो विनाशकारी परमाण्विक युद्ध में भी बदल सकता है या फिर किसी शांतिपूर्ण पहल का? जवाब फिलहाल निराशाजनक है।

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